Ad

जैविक खाद

जानिए किस प्रकार घर पर ही मसूर की दाल से जैविक खाद तैयार करें

जानिए किस प्रकार घर पर ही मसूर की दाल से जैविक खाद तैयार करें

बागवानी में हम जिन खादों का इस्तेमाल करते हैं, उनमें जैविक खादों का अपना अहम महत्व होता है। बहुत सारी खादों को हम घर पर ही तैयार कर सकते हैं। आज हम आपको मसूर की दाल से निर्मित होने वाली खाद के विषय में बताने जा रहे हैं। आपको इस खाद को तैयार करने के लिए सिर्फ दो मुठ्ठी मसूर की दाल की आवश्यकता होती है। दरअसल, आप अपने घर के लगभग सभी गमलों में इसका प्रयोग कर सकते हैं। मसूर की दाल से खाद निर्मित किए जाते हैं। खाद अथवा उर्वरक पोधों के पोषण के लिए तो आवश्यक होने के साथ-साथ उनके विकास में भी मददगार साबित होती है। हम घर में बागवानी करते समय विभिन्न प्रकार की जैविक और अजैविक खादों का इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, इस लेख में हम आपको बागवानी में इस्तेमाल होने वाली एक ऐसी खाद के विषय में बताएंगे, जिसे निर्मित करने में आपको किसी भी अतिरिक्त सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। साथ ही, घर में मौजूद सामग्रियों के जरिए से आप यह खाद घर पर ही बना सकते हैं। दरअसल, इस खाद को हम मसूर की दाल से निर्मित करते हैं। साथ ही, इसका इस्तेमाल हम घर की बागवानी वाले पौधों के लिए भी कर सकते हैं।

खाद तैयार करने की विधि

मसूर की दाल की बात की जाए तो इसमें वे समस्त पोषक तत्व विघमान होते हैं, जिनके चलते पौधों में विकास और वृद्धि को रफ्तार मिलती है। इसको तैयार करने के लिए आपको सबसे पहले दो मुठ्ठी दाल को तकरीबन आधा लीटर पानी में डाल लें। पानी में इस दाल को 4 से 5 घंटे तक रखें। यदि मौसम सर्दी का है, तो आप इसको रात भर भिगो कर रख सकते हैं।

ये भी पढ़ें:
भारत-कनाडा के बीच तकरार का असर मसूर की कीमतों पर पड़ेगा अथवा नहीं

पानी का मिश्रण किस अनुपात में किया जाए

पौधों में इस खाद को डालने के लिए सर्व प्रथम पानी और दाल को अलग कर लेना है। आपको दाल के भिन्न किए गए पानी में 1:5 के अनुपात में पानी और मिला लेना है। इस पानी को पौधों में एक स्प्रे बोतल से छिड़काव के साथ में पौधों की मृदा में पानी को डाल देना है। यह पानी बहुत सारे पोषक तत्वों से भरपूर होता है, जिसकी वजह से पौधों में होने वाले विकास में वृद्धि होती है। आपको इस बात का विशेष ख्याल रखना है, कि यह पानी आपको पौधों में एक माह में केवल एक बार ही देना है। पानी से केवल पौधों की मिट्टी की ऊपरी सतह भीगने तक ही सिंचाई करनी चाहिए।

किस प्रकार प्रयोग करें

किसान भाइयों यदि आप इस दाल के पानी से खाद तैयार करना चाहते हैं, तो आपको एक बार के इस्तेमाल के पश्चात उस दाल को फेंकना नहीं है। क्योंकि, एक बार के उपयोग के पश्चात भी इसके पोषक तत्व खत्म नहीं होते हैं। आप इस दाल का इस्तेमाल तीन बार तक कर सकते हैं। पौधों में इस खाद का इस्तेमाल पानी के तौर पर नहीं करना चाहिए। बतादें, कि आप इस दाल को महीन पीस लें। साथ ही, इसे पौधों की मिट्टी की ऊपरी परत पर ही मिला दें। आपको इसे मिलाने से पूर्व एक बात का खास ख्याल रखना होगा कि आप जिन पौधों में इस खाद को मिश्रित करने जा रहे हैं, उस मिट्टी की पहले गुड़ाई कर लें। इसके पश्चात ही इसका उपयोग करें।
हरी खाद दे धरती को जीवन

हरी खाद दे धरती को जीवन

खाद कई प्रकार की होती है। पुराने लोग ढेंचा,सनई जैसी अनेक फसलों को हरी खाद के लिए लगाया करते थे लेकिन उपज की अंधी दौड़ में हमने इन्हें बिसार दिया है। उत्पादन तो बढ़ा है लेकिन न तो उचित कीमत मिल रही है और ना पोषण से भरपूर अन्न रह गया है। हरी खाद से जमीन की जल धारण क्षमता से लेकर उपज क्षमता तक बढ़ाती है। अधिकांश इलाकों में तीन से चार माह का समय ऐसा आता है जबकि खेतों में कोई फसल नहीं होती। इस समय को खेत की सेहत सुधारने और हरी खाद उगाने के लिए काम में लिया जा सकता है। वर्षा आधारित इलाकों में इस काम को खेती के एक एक हिस्से को हरी खाद के लिए खाली छोडकर बाकी में फसल लेकर मिट्टी की सेहत सुधारी जा सकती है। मिट्टी से लगातार दोहन के चलते उसमें पौधों की बढ़वार के कारण तत्व खत्म हो जाते है। इन्हें हरी खाद से बढ़ाया जा सकता है। इसके आलवा धान-गेहूं फसल चक्र वाले इलाकों में यदि एक दहलनी फसल का चक्र किसाान भाई बना लें तो भी मिट्टी की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। जैविक खादों से तैयार उत्पादन सेहत के लिए फायदेमंद होने के अलावा रासायनिक खादों के मुकाबले स्वादिष्ठ होता है। जैविक खादों से तैयार उत्पाद खाने से स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे को काफी कम किया जा सकता है। हरी खाद का प्रयोग करने से रासायनिक खादों पर होने वाले खर्चे कम करने के अलावा सामान्य रूप से रोगों से लड़ने में सक्षम फसल तैयार की जा सकती है। हरी खाद बनाने केि लिए  गेंहू काटने के बाद का 60 से 70 दिन का समय मुफीद रहता है। हरी खादों के लिए ढ़ेंचे की बिजाई की जाती है। इसे तकरीबन 60 दिन का होने पर हैरों से खेत में ही कतर दिया जाता है। इसके बाद यदि उपलब्ध हो तो खेत में पानी लगाने से कतरन जल्दी गल सड़कर खेत की मिट्टी में घुल मिल जाती है। इसके अलावा सनई, दहलनी मूंग, उरद, अरहर आदि की जड़ों से भी जैविक खाद मिलता है।
पपीते की खेती कर किसान हो रहे हैं मालामाल, आगे चलकर और भी मुनाफा मिलने की है उम्मीद

पपीते की खेती कर किसान हो रहे हैं मालामाल, आगे चलकर और भी मुनाफा मिलने की है उम्मीद

आजकल समय बदल रहा है और किसान भी अपनी फसलों और खेतीबाड़ी को लेकर पहले से ज्यादा जागरूक हो गए हैं। अब वह जमाना नहीं रहा है जब किसान एक ही तरह की फसलों को पारंपरिक तरीके से खेत में लगाते रहते थे और आगे चलकर यह उम्मीद करते थे कि सभी तरह की परिस्थितियां सही रहें और उन्हें अच्छा उत्पादन मिल सके। 

आजकल किसान एक्सपर्ट आदि की सलाह लेकर ना सिर्फ अपनी कृषि की तकनीकों को बदल रहे हैं, बल्कि पारंपरिक तरीके की फसलों से भी हटकर कुछ खेती कर रहे हैं। 

महाराष्ट्र में ज्यादातर किसान आजकल बागवानी फसलों की तरफ रुख कर रहे हैं, क्योंकि इन फसलों में नुकसान होने की संभावना भी कम रहती है। साथ ही कम मेहनत करते हुए आपको ज्यादा मुनाफा मिलने की संभावना रहती है। एक पल जो किसानों में बेहद लोकप्रिय हो रहा है, वह है पपीता। 

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महाराष्ट्र के सांगली में एक किसान ने 1 एकड़ जमीन में पपीते की खेती की जिससे उसे सालाना 23 लाख रुपए की कमाई हुई है। इस किसान ने एक अलग तरह के पपीते की खेती की है, जिसकी मांग बाजार में बहुत ज्यादा है।

कौन सी किस्म का है ये पपीता

प्रतीक पुजारी नाम के एक किसान ने अपने खेत में लगभग एक हजार पपीते के पेड़ लगाए थे। जो पिछले 2 साल से लगे हुए हैं और उन पर अभी फल लगने शुरू हुए हैं। 

अभी तक लगभग 210 टन पपीते का उत्पादन हो चुका है और इसे बेचकर प्रतीक पुजारी ने 23 लाख रुपए का मुनाफा कमा लिया है। उनके द्वारा लगाई गई पपीते की किस्म 15 नंबर पपीता है।

ये भी पढ़ें: पपीते की खेती से कमाएं: स्वाद भी सेहत भी

क्यों है ये पपीता इतना डिमांड में

पपीते की 15 नंबर किस्म की बाजार में बहुत ज्यादा डिमांड है। इसके उत्पादन में बहुत ज्यादा मेहनत या फिर संसाधन लगाने की जरूरत नहीं पड़ती है और साथ ही यह बहुत तरह की बीमारियों में इलाज के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।

इसलिए बाजार में इसकी मांग समय के साथ बढ़ती ही जा रही है। इसके अलावा प्रतीक पुजारी बताते हैं, कि उन्होंने इसके उत्पादन में ज्यादा से ज्यादा जैविक खाद का इस्तेमाल किया है। ताकि वह इसे ऑर्गेनिक तौर पर बाजार में ला सके और अपना मुनाफा कमा सकें। 

पपीते की इस किस्म को अपने खेत में लगाकर आप 1 से 2 साल के अंदर इसका उत्पादन शुरू कर सकते हैं और इसे बाजार में लाकर अच्छा-खासा मुनाफा कमा सकते हैं।

कृषि में गाय, भेड़, बकरी, चींटी, केंचुआ, पक्षी, पेड़ों का महत्व

कृषि में गाय, भेड़, बकरी, चींटी, केंचुआ, पक्षी, पेड़ों का महत्व

भारतीय कृषि इतिहास में प्रकृति प्रदत्त जीव जंतुओं के खेती किसानी में उपयोग लेने संबंधी तमाम प्रमाण मौजूद हैं। बिसरा दिए गए ये वे प्रमाण हैं जिनको पुनः उपयोग में लाकर, किसान मित्र खेती की उर्वरता के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य रक्षा मिशन में, देश-दुनिया के साथ हाथ बंटा सकते हैं।

कृषक करते हैं भेड़ के झुंड का इंतजार खाद के बदले किसान करते हैं भुगतान प्रकृतिक ड्रोन ऐसे करते हैं प्रकृति की मदद

भारत के धर्म शास्त्र एवं पुराण में योनिज और आयोनिज जैसे दो वर्गों में विभाजित 84 लाख योनियों का उल्लेख किया गया है। इन समस्त जीव योनियों के प्रति भारत में सम्मान का भाव रखने की सीख बचपन से दी जाती है। कुल 84 लाख योनियों से जनित जीवों के जीवन चक्र में बगैर खलल डाले, सहज प्राकृतिक चक्र के मुताबिक जीवन उपभोग की सामग्री जुटाने की कृषि विधियां भी भारत में बखूबी पल्लवित हुईं। गायों की सेवा कर बछड़ा, दूध, दही, मक्खन, छाछ और धरती के सर्वोत्कृष्ट खाद्य पदार्थ घी की उत्पत्ति के अलावा सर्प (सांप) नियंत्रण तक की मान्य विधियां भारत के गौरवमयी इतिहास का हिस्सा रही हैं। चींटी को दाना देने से लेकर कौओं तक को भोजन समर्पित करने की परंपरा भी भारतीय जीवन दर्शन की बड़ी उपलब्धि है। भारतीय कृषि इतिहास में प्रकृति प्रदत्त जीव जंतुओं के खेती किसानी में उपयोग लेने संबंधी तमाम प्रमाण मौजूद हैं। बिसरा दिए गए ये वे प्रमाण हैं जिनको पुनः उपयोग में लाकर, किसान मित्र खेती की उर्वरता के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य रक्षा मिशन में देश-दुनिया के साथ हाथ बंटा सकते हैं।

ये भी पढ़ें: जैविक खेती पर इस संस्थान में मिलता है मुफ्त प्रशिक्षण, घर बैठे शुरू हो जाती है कमाई

आधुनिक कृषि के दुष्परिणाम

दुष्परिणामों को आधुनिक कृषि में उपयोग में लाए जा रहे खेती किसानी के तरीकों से बखूबी समझा जा सकता है। निश्चित ही ट्रैक्टर, रसायन, उपचारित बीजों जैसे आधुनिक कृषि तरीकों से किसान को कम समय में बंपर पैदावार के साथ ज्यादा कमाई हासिल हो रही हो, लेकिन उसके उतनी तेज गति से दुष्परिणाम भी हो रहे हैं। आधुनिक कृषि तरीकों को अपनाने के कारण खेत की उपजाऊ क्षमता के साथ ही, पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। मानव स्वास्थ्य से जुड़े अध्ययनों में रसायन प्रयुक्त उपज उत्पाद के सेवन से मानव की औसत आयु के साथ ही उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ रही है। ऐसे में आधुनिक कृषि के मुकाबले परंपरागत कृषि में अपनाए जाने वाले प्राकृतिक तरीकों को अपनाकर मानव और प्रकृति स्वास्थ्य संबंधी संतुलन को बरकरार रखा जा सकता है। ट्रेक्टर से खेत की जुताई आसान जरूर है, लेकिन इससे खेत में मौजूद प्राकृतिक जीव जंतुओं के आवास (बिल, बामी आदि) के खराब होने का खतरा रहता है। कृषि में कैसे मददगार हैं जीव-जंतु आधुनिक ड्रोन तकनीक का खेती में भले ही नया मशीनी प्रयोग देख मानव आश्चर्यचकित हो, लेकिन तोतों, कौओं, गौरैया आदि के जरिये प्रकृति बगैर किसी तरह का प्रदूषण फैलाए अपना विस्तार करती रही है। बगैर डीजल, पेट्रोल बिजली के संचालित होने वाले पक्षी प्राकृतिक रूप से बीजारोपण आदि में प्रकृति का सहयोग प्रदान करते हैं। कीट प्रबंधन में भी पक्षी एवं अन्य जीव प्रकृति चक्र का अहम हिस्सा एवं सहयोगी कारक हैं।

ये भी पढ़ें: अब होगी ड्रोन से राजस्थान में खेती, किसानों को सरकार की ओर से मिलेगी 4 लाख की सब्सिडी

कृषि में पशुओं का महत्व

प्राकृतिक कृषि पद्धति में पशुओं का अहम स्थान है। बैल आधारित जुताई खेतों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी मानी गई है। ट्रैक्टर के बजाए हल से खेत जोतने पर खेत की मिट्टी की गहराई में मौजूद उर्वरा शक्ति नष्ट नहीं होती। ट्रैक्टर के मुकाबले पशु धुआं नहीं छोड़ते, पेट्रोल-डीजल नहीं पीते ऐसे में पर्यावरण संतुलन बनाने में भी मददगार साबित होते हैं। उल्टे इनके गोबर से खेत की उपजाऊ शक्ति में ही वृद्धि होती है।

भेड़-बकरी से कृषि में लाभ

भेड़-बकरी की इन विशेषताओं को जानकर अनभिज्ञ किसान भी मालवा, राजस्थान के किसानों की तरह इन पशुओं को पालने वाले पालकों और पशुओं का काफिला गुजरने का बेसब्री से इंतजार करने लगेंगे। मध्य प्रदेश में मालवा अंचल के किसान उनके खेतों के आसपास से गुजरने वाले भेड़, बकरी के समूहों का बेसब्री से इंतजार करते हैं। दरअसल, राजस्थान के भेड़ (गाटर), बकरी, ऊंट आदि मवेशियों को पालने वालों का समूह प्रतिवर्ष अपने मवेशियों को चराने के लिए मध्य प्रदेश के पहाड़ी इलाकों से होकर गुजरता है। मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के किसान यायावर जीवन जीने वाले इन पशु पालकों से उनके मवेशियों के झुंड को खेत में रोकने का अनुरोध करते हैं। इतना ही नहीं खेत के मालिक किसान, पशुपालकों को अनाज, कपड़े एवं रुपए तक पशुओं को खेत में ठहराने के ऐवज में प्रदान करते हैं।

भेड़ की लेंड़ी की शक्ति

आधुनिक किसानी में परंपरागत खेती का सम्मिश्रण कर जैविक, या फिर हर्बल पदार्थों एवं घोलों को खेत की मिट्टी में मिलाने की सलाह दी जाती है, हालांकि यह विधि भारत के लिए नई नहीं है। अनुभवी किसान भेड़ों के झुंड को इसलिए अपने खेतों में ठहरवाते हैं ताकि भेड़, बकरियों की लेंड़ियां खेत की मिट्टी में मिल जाएं। जंगली पत्ती, वनस्पति चारा खाने वाली भेड़-बकरियों की लेंड़ी में भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करने की अपार क्षमता होती है। ऐसे में बगैर किसी कृत्रिम तरीके से तैयार खाद के मुकाबले प्राकृतिक तरीके से ही खेत में भेड़-बकरी जनित जैविक खाद का सम्मिश्रण भी हो जाता है। शाजापुर जिले के खामखेड़ा ग्राम निवासी पवन कुमार बताते हैं कि, वे अपने दादा-परदादा के समय से खेतों में भेड़-बकरियों के झुंड को ठहरवाते देख रहे हैं। इससे खेत की उत्पादन क्षमता में प्राकृतिक तरीके से काफी वृद्धि होती है। यह हमारे लिए एक परंपरा बन चुकी है क्योंकि भेड़ पालक प्रति वर्ष हमारे इलाके से गुजरते हैं तो हमारे या आसपास के किसानों के खेतों पर अपना डेरा जमाते हैं।

जैविक खाद

मिट्टी की उर्वरा शक्ति में चींटी, केंचुआ के अलावा अन्य दृश्य-अदृस्य सूक्षम जीवों की जरूरत एवं महत्व को जानकर अब अधिकतर किसान जैविक खाद के उपयोग को अपना रहे हैं। छोटे समझ में आने वाले चींटी और केंचुआ खेती के स्वास्थ्य के लिए खासे मददगार हैं। इनकी मदद से भूमि का भुरभुरापन कायम रहता है वहीं कीट रक्षा प्रबंधन में भी ये किसान का प्राकृतिक रूप से हाथ बंटाते हैं।

ये भी पढ़ें: एकीकृत जैविक खेती से उर्वर होगी धरा : खुशहाल किसान, स्वस्थ होगा इंसान

पेड़ों का महत्व

खेत का दायरा बढ़ाने के लिए आज के कृषक खेत के उन फलदार पेड़ों को काटने में भी गुरेज नहीं करते, जिन्हें उनके दूरदर्शी पूर्वजों ने बतौर विरासत सौंपा था। मौसम में इन पेड़ों से जहां फल के रूप में आय सुनिश्चित रहती है, वहीं फल, पत्ती, छाल, लकड़ी आदि से भी अतिरिक्त आय किसान को होती रहती है। अमरूद, आम, बेर, बांस, करौंदा, बेल, कैंथा, जामुन आदि के पेड़ों को खेत की मेढ़ के आसपास करीने से लगाकर किसान अपनी अतिरिक्त आय सुनिश्चित कर सकता है। इन पेड़ों पर पक्षियों का बसेरा होने से कीट-पतिंगों के नियोजन में भी किसान को मदद मिलती है। या यूं कहें कि पक्षियों के निवास के कारण कीट-पतिंगे खेत के पास कम ही फटकते हैं।

आधुनिक तरीकों का समावेश

प्राकृतिक कृषि पद्धिति में आधुनिक तरीकों का सम्मिश्रण कर किसान खेती को कम लागत वाला भरपूर मुनाफे का धंधा बना सकते हैं। उदाहरण के तौर पर सख्त भूमि, अनाज की ढुलाई आदि कृषि कार्य में ट्रैक्टर आदि की मदद ली जा सकती है। क्यारी एवं टपक सिंचन विधि में आधुनिक तरीकों का उपयोग कर उसे और लाभदायक बनाया जा सकता है। रासायनिक पदार्थों की जगह गौपालन, भेड़-बकरी पालन कर जैविक खाद का खेत पर ही उत्पादन कर प्राकृतिक चक्र बरकरार रखा जा सकता है।

ये भी पढ़ें: भेड़, बकरी, सुअर और मुर्गी पालन के लिए मिलेगी 50% सब्सिडी, जानिए पूरी जानकारी

कृषि में संगीत का सहारा

कृषि में म्यूजिक का भी तड़का लगाते देखा जा रहा है। देश-विदेश के कई किसानों ने खेतों में समय आधारित राग-रागनियों की ध्वनि पैदा कर उपज पैदावार में वृद्धि के दावे किए हैं। आवाज की रिकॉर्डिंग आधारित उपकरणों एवं लाउड स्पीकर से कुत्तों या जिन जानवरों से फसल को नुकसान पहुंचाने वाले मवेशी डरते हैं की आवाज निकालकर खेतों की जानवरों से सुरक्षा की जा सकती है।

जैविक खेती में किसानों का ज्यादा रुझान : गोबर की भी होगी बुकिंग

जैविक खेती में किसानों का ज्यादा रुझान : गोबर की भी होगी बुकिंग

जैविक खेती में किसानों के ज्यादा रुझान के कारण गोबर की भी होगी बुकिंग

अब ज्यादातर किसान रसायनिक खेती को छोड़ कर
जैविक खेती में आ रहे है. रसायनिक खादो के इस्माल से भले ही पैदावार अच्छी होती हो, परंतु इसके अधिक इस्तमाल से बीमारियां भी हो रही है. जिसके चलते किसान जैविक खेती की ओर बढ़ रहे है. खासकर माड़ चैत्र के किसान पिछले कुछ सालों से जैविक खेती करने में ज्यादा रुचि ले रहे है. सब्जी और फलों में जैविक खाद का खासकर उपयोग हो रहा है. किसानों का जैविक खेती में अधिक लाभ होने के कारण से ज्यादा से ज्यादा किसान जैविक खेती में रुचि ले रहे है.

ये भी पढ़ें: कुवैत में खेती के लिए भारत से जाएगा 192 मीट्रिक टन गाय का गोबर
जैविक खेती में ज्यादा किसानों के रुझान के कारण जैविक खाद की मांग बढ़ रही है. जिसके चलते गोबर की भी भारी मात्रा में बुकिंग हो रही है. बढ़ती मांग के कारण किसान गोबर का संग्रहण कर रहे है. एक ट्राली गोबर की कीमत माड़ छेत्र में 2000 से 2200 रुपए के बीच है. एक समय जहां गोबर को लोग फेक देते थे, जब से किसानों ने जैविक खेती में आना शुरू किया है तब से जैविक खाद की मांग बड़ने लगी है. जिसके चलते किसान पशुपालकों को घर बैठे ही एडवांस में बुकिंग कर लेते है. जिसके चलते अब पशुपालक गोबर से ही हजारों कमा लेते है.

ये भी पढ़ें: पशुपालन के लिए 90 फीसदी तक मिलेगा अनुदान

जैविक खेती के फायदे

जैविक खेती से हो रही सब्जी, फलों आदि की मांग मार्केट में अधिक है क्योंकि इसमें रसायनिक चीजों का इस्तमाल नहीं होता. जिस वजह से लोग अपनी सेहत को सही रखने के लिए प्राकृतिक तरीके से उगी सब्जियों और फलों का सेवन कर अपने और अपने परिवार को सेहतमंद रखना चाहते है. बड़ी बड़ी कंपनियां जैविक खेती के उत्पादकों को किसानों से कम दाम में खरीद कर मार्केट में बड़े दामों पे बेचती है. प्रगतिशील किसान मुकेश मीना रावडताडा, शिवदयाल मीणा नांगल शेरपुर, हरकेश मीणा आमलीपुरा, आदि ने बताया कि रासायनिक तरीके से उगाए हुए चीजों के मुकाबले जैविक तरीके से होंने वाली सब्जियां, फलों, अनाज आदि का सेवन करने से लोग स्वथ रहेंगे.  
कश्मीर में हुई पहली ऑर्गेनिक मार्केट की शुरुआत, पौष्टिक सब्जियां खरीदने के लिए जुट रही है भारी भीड़

कश्मीर में हुई पहली ऑर्गेनिक मार्केट की शुरुआत, पौष्टिक सब्जियां खरीदने के लिए जुट रही है भारी भीड़

ऑर्गेनिक मार्केट के शुरुआत के ही दिनों में लोगों की काफी भीड़ यहां जुटने लगी है. आश्चर्य ये है कि बाजार में बिक्री शुरू होने के कुछ घंटों में ही काउंटर खाली हो जा रहे हैं. श्रीनगर: हर जगह इस समय जैविक खाद्य पदार्थ या आम भाषा में कहें तो ऑर्गेनिक फूड (Organic Food) की मांग लगातार बढ़ती जा रही है. इसी कारण कश्मीर कृषि विभाग ने ऑर्गेनिक फूड की मांग को देखते हुए श्रीनगर में ऑर्गेनिक बाजार की शुरुआत की है, जिसमें सिर्फ ऑर्गेनिक सब्जियां और फल बेचे जा रहे हैं. यह बाजार कृषि कार्यालय में लगाया जा रहा है और शुरुआत के ही दिनों में यहाँ लोगों की भीड़ जुटने लगी है. आश्चर्य की बात यह है कि बाजार में बिक्री शुरू होने के कुछ घंटों के अंदर ही काउंटर खाली हो जाते हैं.

ये भी पढ़ें: जैविक खेती में किसानों का ज्यादा रुझान : गोबर की भी होगी बुकिंग
क्रेता फैसल अली कहते हैं कि हमें यहाँ अब पुराने जमाने के जैसा अनुभव होत्ता है . बिना किसी खाद और कीटनाशक का भोजन. हम यहाँ पहली बार आए हैं और यह बजार और भी विकसित होगा इसकी हम उम्मीद कर रहे हैं.

साधारण खेत को ऑर्गेनिक बनाने में लगता है 3 साल का समय

कश्मीर के कृषि कहते हैं कि हमने तीन साल पहले खेतो को ऑर्गेनिक करने का कार्यक्रम शुरू किया था. उन्होंने बताया कि किसी भी साधारण खेत को ऑर्गेनिक रूप में बदलने के लिए लगभग तीन साल का समय लग जाता है तब जा कर चौथे वर्ष में उस खेत को ऑर्गेनिक माना जाता है.

ऑर्गेनिक खेती से किसानों को मिल रहा है बेहतर लाभ

किसान जावेद अली कहते हैं कि हम फसलों को उगाने के लिए किसी भी तरह का केमिकल, फर्टिलायजर उपयोग नहीं करते हैं. महंगी खाद की जगह हम इसमें प्राकृतिक खाद का उपयोग करते हैं और इसका हमें बेहतर लाभ भी मिलता है. उन्होंने बताया कि फल और सब्जियों की बिक्री कर के वो रोजाना लगभग 500 रुपये तक कमा लेते हैं.

ये भी पढ़ें: ओडिशा के एक रेलकर्मी बने किसान, केरल में ढाई एकड़ में करते हैं जैविक खेती

कश्मीर में 1100 हेक्टर भूमि है ऑर्गेनिक खेती के लिए उपलब्ध

कश्मीर में अभी तक 1100 हेक्टर भूमि ऑर्गेनिक खेती के लिए उपलब्ध है, जिसमें 300 हेक्टर को सर्टिफाइड किया गया है. कश्मीर कृषि विभाग को यह उमीद है की ऑर्गेनिक खेती कश्मीर में किसानों को नई दशा और दिशा के साथ बुलंदियों तक ले जाएगी.
जैविक खाद का करें उपयोग और बढ़ाएं फसल की पैदावार, यहां के किसान ले रहे भरपूर लाभ

जैविक खाद का करें उपयोग और बढ़ाएं फसल की पैदावार, यहां के किसान ले रहे भरपूर लाभ

किसानों ने माना खेत की मिट्टी हो रही मुलायम, बुआई और रोपाई में कम लग रही मेहनत

रायपुर। भारत सहित पूरे विश्व में जब भी खेती-किसानी की बात आती है, तो उसके साथ खाद का उपयोग भी एक बड़ी चुनौती या यूं कहें कि हर साल एक समस्या के रूप में उभरकर सामने आती है। वहीं फसल की बुआई से पहले किसानों को खाद की चिंता सताने लगती है। हर साल खाद की कालाबाजारी के भी मामले देशभर में सामने आते रहते हैं। दूसरी ओर किसान भी यह आरोप लगाते हैं कि उन्हें खाद की उचित मात्रा में आपूर्ति नहीं की जाती, जिस कारण सोसायटियों में हमेशा खाद की किल्लत बनी रहती है। ऐसे में हर साल एक बड़ा रकबा खाद की कमी से कम पैदावार कर पाता है। वहीं अब इस समस्या को दूर करने के लिए कई राज्य जैविक खाद को अपनाने लगे हैं। ऐसे में
छत्तीसगढ़ के किसान जैविक खाद का भरपूर फायदा उठा रहे हैं और फसल की पैदावार बढ़ा कर अपने को और स्वाबलंबी बना रहे हैं। वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने भी माना है कि जैविक खाद का उपयोग करने से खेत की मिट्टी मुलायम हो रही है। इस खरीफ सीजन में खेत की जुताई और धान की रोपाई में किसानों को काफी आसानी हुई है।

छत्तीसगढ़ मेें जैविक खाद लेना अनिवार्य किया

जहां एक ओर कीटनाशक के प्रयोग से फसल जहरीली हो रही है और भूमि की उर्वरा शक्ति भी कमजोर हो रही है, ऐसे में छत्तसीगढ़ सरकार जैविक खाद का उपयोग करने किसानों को प्रोत्साहित कर रही है। सरकार का मानना है जैविक खाद के प्रयोग से जहां जमीन की उर्वरा शक्ति तो बढ़ेगी ही, दूसरी ओर रासायनिक खाद का उपयोग कम होने से इसकी कालाबाजारी कम होगी और हर साल किसानों को होने वाली खाद की किल्लत से किसानों को छुटकारा मिल जाएगा। इसी के तहत छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों को जैविक खाद लेना अनिवार्य कर दिया है।


ये भी पढ़ें: गौमूत्र से बना ब्रम्हास्त्र और जीवामृत बढ़ा रहा फसल पैदावार

जैविक खाद के फायदे

छत्तीसगढ़ के कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि जैविक खाद का उपयोग हर मामले में किसानों के लिए लाभदायक साबित होगा। इससे किसानों को घंटों सोसायटियों में खाद के लाइन लगाने से जहां छुटकारा मिलेगा और जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ाने में मदद मिलेगी। वहीं जैविक खाद के उपयोग कें कई फायदे भी हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे मिट्टी की भौतिक व रसायनिक स्थिति में सुधार होता है व उर्वरक क्षमता बढ़ती है। वहीं रासायनिक खाद के उपयोग से मिट्टी में जो सूक्ष्म जीव होते हैं उनकी संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है, जिस कारण हर साल किसानों को फसल का नुकसान होता है। जैविक खाद के उपयोग से उन सूक्ष्म जीवों की गतिविधि में वृद्धि होती है और वे फसल की पैदावार बढ़ाने में काफी अहम भूमिका निभा सकते हैं। वहीें जैविक खाद का उपयोग मिट्टी की संरचना में सुधार करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अपना सकती है, जिससे पौधे की जड़ों का फैलाव अच्छा होता है। वहीं इसके उपयोग से मृदा अपरदन कम होता है। मिट्टी में तापमान व नमी बनी रहती है।

जैविक खाद के उपयोग से मुलायम हो रही मिट्टी



ये भी पढ़ें: किसानों के लिए खुशी की खबर, अब अरहर, मूंग व उड़द के बीजों पर 50 प्रतिशत तक की सब्सिडी मिलेगी
वहीं वर्तमान में खरीफ फसल की बुआई के समय छत्तीसगढ़ के किसानों ने भी माना है कि जैविक खाद का उपयोग करने से उनकी जमीन कह मिट्टी मुलायम हुई है। इस कारण इस साल उन्हें जुताई और रोपाई करने में काफी मदद मिली। फसल लगाने में हर बार उन्हें जो महनत करनी पड़ती थी वह इस बार काफी कम हुई, जिससे उनके समय और पैसे दोनों की बचत हुई है।

गौठानों में बनाई जा रही कंपोस्ट खाद

छत्तीसगढ़ में धान की खेती व्यापक रुप से की जाती है। यही कारण है कि इसे धान का कटोरा कहा जाता है। जब खेती व्यापक होगी तो खाद की जरूरत ज्यादा होगी। ऐसे में छत्तीसगढ़ में जैविक खाद की आपूर्ति करने में गौठान एक महत्वपूर्ण भूका निभा रहे हैं।


ये भी पढ़ें: रोका-छेका अभियान : आवारा पशुओं से फसलों को बचाने की पहल
छत्तीसगढ़ सरकार ने गांव-गांव में पशुओं का रखने के लिए गौठान बनाने योजना शुरू की थी, जिसके तहत प्रदेश के लाखों पशुओं को एक ठिकाना मिला। वहीं दूसरी गौठानों में अजीविका के कई कार्य भी शुरु किए गए, जिसमें कंपोस्ट खाद निर्माण में इन गौठानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और किसानों को खाद की किल्लत से राहत पहुंचाई।

ऐसे में बनाई जाती है जैविक खाद

जैविक खाद बनाना काफी आसान है। यही कारण है कि आज किसान जैविक खाद खेत या अपने घर पर ही तैयार कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में गौठानों में इस खाद को तैयार किया जाता है। इसको बनाने के लिए सरकार ने हर गौठान में एक टैंक बनवाया है। इसमें गोबर डालकर इसमें गोमूत्र मिलाया जाता है। इसके साथ ही इसमें सब्जियों का उपयोग भी कर सकते हैं। कही-कही इसमें गुड़ का उपयोग भी किया जा राह है। इसके बाद इसमें पिसी हुई दालों व लकड़ी का बुरादा डाल दें। आखिर में इस मिश्रण को मिट्टी में साना जाता है।


ये भी पढ़ें: गाय के गोबर से किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए मोदी सरकार ने उठाया कदम
यह जरूरी है कि खाद बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पदार्थों की मात्रा सही हो। जैविक खाद बनाने के लिए 10 किलो गोबर,10 लीटर गोमूत्र, एक किलो गुड, एक किलो चोकर एक किलो मिट्टी का मिश्रण तैयार करें। इन पांच तत्वों को अच्छी से मिला लें। मिश्रण में करीब दो लीटर पानी डाल दें। अब इसे 20 से २५ दिन तक ढंक कर रखें। अच्छी खाद पाने के लिए इस घोल को प्रतिदिन एक बार अवश्य मिलाएं। 20 से २५ दिन बाद ये खाद बन कर तैयार हो जाएगी। यह खाद सूक्ष्म जीवाणु से भरपूर रहेगी खेत की मिट्टी की सेहत के लिये अच्छी रहेगी।
गुजरात में गोबर-धन से मिलेगी क्लीन एनर्जी, एनडीडीबी और सुजुकी ने मिलाया हाथ

गुजरात में गोबर-धन से मिलेगी क्लीन एनर्जी, एनडीडीबी और सुजुकी ने मिलाया हाथ

आम तौर पर खेती करने वाले लोग कृषि क्षेत्र में गाय के गोबर का उपयोग करते हुए नजर आते हैं, क्योंकि गाय के गोबर से बने हुए खाद में मौजूद पोषक तत्व फसल के उपज को बढ़ाव देते हैं। मानव सभ्यता के जन्म से ही गाय के गोबर का उपयोग प्राकृतिक खाद के रूप में किया जाता रहा है। व्यापक पैमाने पर अब गाय के गोबर से जैविक खाद बनाई जा रही है, दूसरी तरफ देश का प्रमुख राज्य गुजरात गाय के गोबर से स्वच्छ ऊर्जा और जैविक खाद को बढ़ावा देने के लिए जबरदस्त रणनीति तैयार कर रहा हैं। बीते दिनों नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड यानी एनडीडीबी (राष्‍ट्रीय डेरी विकास बोर्ड (NDDB - National Dairy Development Board)) और जापानी कार निर्माता कंपनी सुजुकी (Suzuki) ने साथ मिलकर दो बायोगैस संयंत्र (Biogas plant) बनाने के लिए समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया है।

गुजरात में दो बायोगैस प्लांट लगाने की तैयारी

इस वर्ष सुजुकी का भारत में 40 साल पूरे होने पर पिछले दिनों गुजरात में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इस आयोजन में गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल भी मौजूद थे। इस कार्यक्रम में एनडीडीबी और सुजुकी के बीच दो बायोगैस प्लांट बनाने को लेकर एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया गया। गुजरात पहले से ही रीन्यूएबल और क्लीन एनर्जी (Renewable and Clean Energy) उत्पादन के क्षेत्र में अग्रणी रहा है।


ये भी पढ़ें:
गाय के गोबर से बन रहे सीमेंट और ईंट, घर बनाकर किसान कर रहा लाखों की कमाई
राज्य में सौर ऊर्जा विकल्पों पर भी काफी काम किया गया है| अब, गोबर गैस प्लांट यानी बायो गैस उत्पादन के जरिये एक बार फिर गुजरात पूरे देश के लिए एक मिसाल बन कर सामने उभरेगा। गौरतलब है की देश में जितनी बड़ी संख्या में दुधारू पशुओं की संख्या है और आम लोग भी जितनी बड़ी संख्या में पशुपालन के कार्य से जुड़े हुए हैं, उसे देखते हुए अगर गोबर गैस प्लांट के विकल्प पर इसी संजीदगी से हर राज्य विचार करे, तो देश रीन्यूएबल एवं क्लीन एनर्जी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की क्षमता रखता है।

कई राज्यों ने शुरू कर दिया है पशुपालकों से गोबर खरीदने का काम

बीते दिनों छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने भी यह घोषणा की थी कि राज्य सरकार पशुपालकों से गाय का गोबर खरीदेगी। सरकार इस योजना का विस्तार अब अनेक शहरों में भी कर रही हैं क्योकि गाय का गोबर एक सस्ता और आसानी से उपलब्ध जैव संसाधन है। गाय के गोबर में मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने की प्राकृतिक क्षमता होती है। वास्तव में छतीसगढ़ की सरकार राज्य में लगभग 500 से अधिक बॉयोगैस प्लांट स्थापित करने की योजना पर पहल कर रही हैं।
सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया

सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया

सही लागत-उत्पादन अनुपात के अनुसार सब्ज़ी की खेती

भारत शुरुआत से ही एक कृषि प्रधान देश माना जाता है और यहां पर रहने वाली अधिकतर जनसंख्या का कृषि ही एक प्राथमिक आय का स्रोत है। पिछले कुछ सालों से बढ़ती जनसंख्या की वजह से बाजार में कृषि उत्पादों की बढ़ी हुई मांग, अब किसानों को जमीन पर अधिक दबाव डालने के लिए मजबूर कर रही है। इसी वजह से कृषि की उपज कम हो रही है, जिसे और बढ़ाने के लिए किसान लागत में बढ़ोतरी कर रहें है। यह पूरी पूरी चक्रीय प्रक्रिया आने वाले समय में किसानों के लिए और अधिक आर्थिक दबाव उपलब्ध करवा सकती है। भारत सरकार के किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य पर अब कृषि उत्पादों में नए वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकों की मदद से लागत को कम करने का प्रयास किया जा रहा है। धान की तुलना में सब्जी की फसल में, प्रति इकाई क्षेत्र से किसानों को अधिक मुनाफा प्राप्त हो सकता है। वर्तमान समय में प्रचलित सब्जियों की विभिन्न फसल की अवधि के अनुसार, अलग-अलग किस्मों को अपनाकर आय में वृद्धि की जा सकती है। मटर की कुछ प्रचलित किस्म जैसा की काशी उदय और काशी नंदिनी भी किसानों की आय को बढ़ाने में सक्षम साबित हो रही है। सब्जियों के उत्पादन का एक और फायदा यह है कि इनमें धान और दलहनी फसलों की तुलना में खरपतवार और कीट जैसी समस्याएं कम देखने को मिलती है। सब्जियों की नर्सरी को बहुत ही आसानी से लगाया जा सकता है और जलवायुवीय परिवर्तनों के बावजूद अच्छा उत्पादन किया जा सकता है।


ये भी पढ़ें:
पॉलीहाउस की मदद से हाईटेक कृषि की राह पर चलता भारतीय किसान
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) के अनुसार भारत की जमीन में उगने वाली सब्जियों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है, जिनमें धीमी वृद्धि वाली सब्जी की फसल और तेज वृद्धि वाली सब्जियों को शामिल किया जाता है। धीमी वृद्धि वाली फसल जैसे कि बैंगन और मिर्च बेहतर खरपतवार नियंत्रण के बाद अच्छा उत्पादन दे सकती है, वहीं तेजी से बढ़ने वाली सब्जी जैसे भिंडी और गोभी वर्ग की सब्जियां बहुत ही कम समय में बेहतर उत्पादन के साथ ही अच्छा मुनाफा प्रदान कर सकती है।

कैसे करें खरपतवार का बेहतर नियंत्रण ?

सभी प्रकार की सब्जियों में खरपतवार नियंत्रण एक मुख्य समस्या के रूप में देखने को मिलता है। अलग-अलग सब्जियों की बुवाई के 20 से 50 दिनों के मध्य खरपतवार का नियंत्रण करना अनिवार्य होता है। इसके लिए पलवार लगाकर और कुछ खरपतवार-नासी रासायनिक पदार्थों का छिड़काव कर समय-समय पर निराई गुड़ाई कर नियंत्रण किया जाना संभव है। जैविक खाद का इस्तेमाल, उत्पादन में होने वाली लागत को कम करने के अलावा फसल की वृद्धि दर को भी तेज कर देता है।

कैसे करें बेहतर किस्मों का चुनाव ?

किसी भी सब्जी के लिए बेहतर किस्म के बीज का चुनाव करने के दौरान किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि बीज पूरी तरीके से उपचारित किया हुआ हो या फिर अपने खेत में बोने से पहले बेहतर बीज उपचार करके ही इस्तेमाल करें। इसके अलावा किस्म का विपणन अच्छे मूल्य पर किया जाना चाहिए, वर्तमान में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बीज निर्माता कंपनियां अपने द्वारा तैयार किए गए बीज की संपूर्ण जानकारी पैकेट पर उपलब्ध करवाती है। उस पैकेट को पढ़कर भी किसान भाई पता लगा सकते हैं कि यह बीज कौन से रोगों के प्रति सहनशील है और इसके बीज उपचार के दौरान कौन सी प्रक्रिया का पालन किया गया है। इसके अलावा बाजार में बिकने वाले बीज के साथ ही प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में होने वाले अनुमानित उत्पादकता की जानकारी भी दी जाती है, इस जानकारी से किसान भाई अपने खेत से होने वाली उत्पादकता का पूर्व अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसे ही कुछ बेहतर बीजों की किस्मों में लोबिया सब्जी की किस्में काशी चंदन को शामिल किया जाता है, मटर की किस्म काशी नंदिनी और उदय के अलावा भिंडी की किस्म का काशी चमन कम समय में ही अधिक उत्पादकता उपलब्ध करवाती है।

कैसे निर्धारित करें बीज की बुवाई या नर्सरी में तैयार पौध रोपण का सही समय ?

किसान भाइयों को सब्जी उत्पादन में आने वाली लागत को कम करने के लिए बीज की बुवाई का सही समय चुनना अनिवार्य हो जाता है। समय पर बीज की बुवाई करने से कई प्रकार के रोग और कीटों से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है और फसल की वर्द्धि भी सही तरीके से हो जाती है, जिससे जमीन में उपलब्ध पोषक तत्वों का इस्तेमाल फसल के द्वारा ही कर लिया जाता है और खरपतवार का नियंत्रण आसानी से हो जाता है। कृषि वैज्ञानिकों की राय में मटर की बुवाई नवंबर के शुरुआती सप्ताह में की जानी चाहिए, मिर्च और बैंगन जुलाई के पहले सप्ताह में और टमाटर सितंबर के पहले सप्ताह में बोये जाने चाहिए।

कैसे करें बीज का बेहतर उपचार ?

खेत में अंतिम जुताई से पहले बीज का बेहतर उपचार करना अनिवार्य है, वर्तमान में कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ जैसे कि थायो-मेथोक्जम ड्रेसिंग पाउडर से बीज का उपचार करने पर उसमें कीटों का प्रभाव कम होता है और अगले 1 से 2 महीने तक बीज को सुरक्षित रखा जा सकता है।


ये भी पढ़ें: फसलों में बीजों से होने वाले रोग व उनसे बचाव

कैसे करें सब्जी उत्पादन में आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल ?

वर्तमान में कई वैज्ञानिक अध्ययनों से नई प्रकार की तकनीक सामने आई है, जो कि निम्न प्रकार है :-
  • ट्रैप फसलों (Trap crop) का इस्तेमाल करना :

इन फसलों को 'प्रपंच फसलों' के नाम से भी जाना जाता है।

मुख्यतः इनका इस्तेमाल सब्जी की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों से बचाने के लिए किया जाता है।

पिछले 10 वर्षों से कृषि क्षेत्र में सक्रिय कृषि वैज्ञानिक 'नीरज सिंह' के अनुसार यदि कोई किसान गोभी की सब्जी उगाना चाहता है, तो गोभी की 25 से 30 पंक्तियों के बाद, अगली दो से तीन पंक्तियों में सरसों का रोपण कर देना चाहिए, जिससे उस समय गोभी की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले डायमंडबैक मॉथ और माहूँ जैसे कीट सरसों पर आकर्षित हो जाते हैं, इससे गोभी की फसल को इन कीटों के आक्रमण से बचाया जा सकता है।

इसके अलावा टमाटर की फसल के दौरान गेंदे की फसल का इस्तेमाल भी ट्रैप फसल के रूप में किया जा सकता है।

  • फेरोमोन ट्रैप (pheromone trap) का इस्तेमाल :

इसका इस्तेमाल मुख्यतः सब्जियों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को पकड़ने में किया जाता है।

गोभी और कद्दू की फसलों में लगने वाला कीट 'फल मक्खी' को फेरोमोन ट्रैप की मदद से आसानी से पकड़ा जा सकता है।

इसके अलावा फल छेदक और कई प्रकार के कैटरपिलर के लार्वा को पकड़ने में भी इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है।



ये भी पढ़ें: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से सफल हो रही है भारतीय कृषि : नई उन्नति की राह बढ़ता किसान
हाल ही में बेंगुलुरू की कृषि क्षेत्र से जुड़ी एक स्टार्टअप कम्पनी के द्वारा तैयार की गई चिपकने वाली स्टिकी ट्रैप (या insect glue trap) को भी बाजार में बेचा जा रहा है, जो आने वाले समय में किसानों के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। आशा करते हैं Merikheti.com के द्वारा उपलब्ध करवाई गई यह जानकारी बदलते वक्त के साथ बढ़ती महंगाई और खाद्य उत्पादों की मांग की आपूर्ति सुनिश्चित करने में किसान भाइयों की मदद करने के अलावा उन्हें मुनाफे की राह पर भी ले जाने में भी सहायक होगी।
ईसबगोल को जैविक खाद से तैयार करने पर दोगुनी हो गई गुजरात के किसानों की आय

ईसबगोल को जैविक खाद से तैयार करने पर दोगुनी हो गई गुजरात के किसानों की आय

विश्व में इसबगोल(Isabgol or Psyllium husk (सिलियम)) के उत्पादन तथा निर्यात में शीर्ष पर विराजमान भारत के किसान, अब जैविक खेती की मदद लेकर अपनी आय को दोगुना करने में सफल हो रहे हैं। वर्तमान में भारत में प्रति वर्ष लगभग एक लाख टन इसबगोल उत्पादन किया जाता है। गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में इसबगोल की उत्पादकता 700 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भी अधिक हो रही है। गुजरात और राजस्थान के किसान भाईयों ने अब धीरे धीरे रासायनिक उर्वरकों की तुलना में जैविक पदार्थों का इस्तेमाल कर उत्पादन को बढ़ाने के साथ ही अपनी आय को सुधारने में भी सफलता हासिल की है। वर्तमान में भारत में उत्पादित किया जा रहा ईसबगोल, अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को 1800 से 2000 रुपया प्रति किलोग्राम की दर से बेचा जा रहा है, लेकिन किसानों को केवल 40 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से ही भुगतान किया जाता है, सामान को कम्पनियों तक पहुंचाने वाले एजेंट ही सारा मुनाफा कमा लेते हैं।


क्या है इसबगोल और इसका इस्तेमाल ?

इसबगोल के बीजों में एक छिलके के जैसा पदार्थ होता है, जिसका इस्तेमाल औषधीय तत्व के रूप में किया जाता है। इस बीज को पीसकर पाउडर बनाया जाता है, जिसका प्रयोग करने से पेट में कब्ज और गर्मी जैसी समस्याओं से छुटकारा मिलता है। इसके अलावा डायरिया और पेचिश जैसे रोगों को दूर करने में भी इसबगोल का आयुर्वेदिक औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 


इसबगोल उत्पादन के लिए आवश्यक मृदा और जलवायु :

रबी के मौसम में उगाई जाने वाली इस फसल के लिए ठंडी जलवायुवीय स्थितियों की आवश्यकता होती है। फसल के उत्पादन से पहले किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि कम नमी की मात्रा वाले क्षेत्रों में इसबगोल का उत्पादन सर्वाधिक होता है। अक्टूबर महीने के आखिरी सप्ताह या नवंबर की शुरुआती सप्ताह में इसबगोल की बुवाई की जाती है। 7 से अधिक पीएच मान वाली मृदा इसबगोल के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, वर्तमान में भारतीय किसान 'दोमट बलुई मृदा' से सर्वाधिक उत्पादन प्राप्त कर पा रहे हैं।


 

इसबगोल उत्पादन के लिए कैसे तैयार करें जैविक मृदा और बीज उपचार ?

राजस्थान के बाड़मेर जिले में रहने वाले किसान विश्वप्रसाद बताते हैं कि वर्तमान में वह ट्राइकोडर्मा (Trichoderma) नाम के फफूंदनाशक का इस्तेमाल कर बीजों का बेहतर उपचार कर रहे हैं। ट्राइकोडर्मा एक लाभकारी और प्रदूषण रहित सुरक्षित फफूंदनाशी होता है, वर्तमान में कृषि वैज्ञानिक इसे जैविक श्रेणी में शामिल करते हैं। बेहतर बीज उपचार के लिए शुरुआत में इसबगोल के बीजों को पानी में डुबोकर गीला किया जाता है और उन्हें ट्राइकोडरमा के साथ तैयार किए गए एक घोल में मिलाकर कुछ समय के लिए रख देना चाहिए। एक किलोग्राम ट्राइकोडरमा के घोल में 25 किलोग्राम जैविक खाद को मिला करें एक एकड़ में इस्तेमाल होने वाले बीजों का उपचार किया जा सकता है। इस प्रक्रिया की मदद से इसबगोल के पौधों में होने वाले तनागलन और कई अन्य रोगों से सफलतापूर्वक निदान पाया जा सकता है।

ये भी पढ़ें: घर पर करें बीजों का उपचार, सस्ती तकनीक से कमाएं अच्छा मुनाफा
 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के से जुड़ी एक गैर सरकारी संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार इसबगोल के प्रति हैक्टेयर के क्षेत्र में उत्पादन करने में लगभग पन्द्रह हज़ार रुपए का खर्चा आता है और वर्तमान बाजार दर से को आधार मानकर किसान एक लाख रुपये तक कि उपज प्राप्त कर सकते हैं। किसान विश्वप्रसाद बताते हैं कि पिछले साल उन्होंने अस्सी हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से मुनाफा कमाया है।


 

वर्तमान में लोकप्रिय इसबगोल की उन्नत किस्में :

वर्तमान में भारतीय किसान परिपक्वता की अवधि के आधार पर इसबगोल की अलग-अलग किस्म का उत्पादन करना पसंद करते हैं। पूसा के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा सुझाई गयी कुछ इसबगोल की कुछ उन्नत किस्में जैसे कि आर.आई.-89 (R. I.- 89) नामक किस्म 110 से 120 दिनों में परिपक्व हो जाती है और इस किस्म से प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से 15 क्विंटल तक इसबगोल का उत्पादन किया जा सकता है। इसके अलावा एम आई जी -2 (MIG-2) नाम की किस्म तीन से चार सिंचाईयों में ही पक कर तैयार हो जाती है। यह किस्म सर्वाधिक उत्पादन देती है और इसकी मदद से प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में सामान्यतः 18 क्विंटल से भी अधिक औसत उपज प्राप्त की जा सकती है। 


ये भी पढ़ें: जैविक खाद का करें उपयोग और बढ़ाएं फसल की पैदावार, यहां के किसान ले रहे भरपूर लाभ


इसबगोल उत्पादन के दौरान कैसे करें खाद एवं उर्वरकों का बेहतर प्रबंधन तथा सिंचाई योजना :

वर्तमान में इसबगोल उत्पादन में एक सफल किसान के रूप में उभरे गुजरात और राजस्थान क्षेत्र में रहने वाले किसान जैविक खाद अर्थात गोबर की खाद और वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करना सर्वोत्तम मानते हैं। अधिक पैदावार के लिए किसान मृदा परीक्षण की मदद से पोषक तत्वों की भी समय पर जांच करवा रहे हैं। इस फसल के उत्पादन के लिए नाइट्रोजन की बहुत ही कम आवश्यकता होती है, लेकिन फिर भी प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 10 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 25 से 30 किलोग्राम फास्फोरस का इस्तेमाल किया जा सकता है। वर्तमान में डिजिटल तकनीकों की मदद से किसानी क्षेत्र में मुनाफा कमाने वाले किसान एजेटॉबेक्टर कल्चर (Azotobacter culture) की मदद से भी बीजों का उपचार कर रहे हैं, जिससे नाइट्रोजन जैसे उर्वरक को खरीदने में आने वाली लागत को कम किया जा सकता है। इसबगोल की फसल की सिंचाई योजना के दौरान बुवाई के तुरंत बाद ही पहली सिंचाई करनी चाहिए। फसल का अंकुरण शुरू होने से पहले पानी का सीमित प्रयोग ही बेहतर उत्पादकता देता है। इसबगोल के एक सीजन को तैयार होने में लगभग तीन से चार सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। किसान भाई अपनी सहूलियत के अनुसार बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई करने के पश्चात अगली सिंचाई 35 दिनों के अंतराल के बाद कर सकते हैं।

ये भी पढ़ें: एकीकृत जैविक खेती से उर्वर होगी धरा : खुशहाल किसान, स्वस्थ होगा इंसान


इसबगोल की फसल में होने वाले रोग और उनका उपचार :

भारतीय क्षेत्र की जलवायु के अनुसार वर्तमान में इसबगोल में मृदुरोमिल नामक एक फफूंद मुख्य रोग के रूप में देखा जाता है। इस रोग की निशानी के रूप में पत्तियों में सबसे पहले धब्बे के जैसे आकार दिखाई देना शुरू होता है, इसके बाद यह पूरी पत्ती पर फैल कर उसे नष्ट कर देते हैं। अधिक नमी वाले स्थानों पर इस रोग के प्रभाव अधिक भी हो सकते हैं। इस फफूंद का प्रभाव कम करने के लिए खड़ी फसल पर लकड़ी के बुरादे से तैयार हुई राख का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा जैविक कृषि से तैयार नीम के पत्तियों को पीस कर एक जैविक कीट घोल बनाकर समय-समय पर इसबगोल की फसल पर छिड़काव करना चाहिए। आशा करते हैं हमारे किसान भाइयों को Merikheti.com की मदद से पश्चिमी भारत में स्थित राज्यों में रहने वाले किसान भाइयों की मुनाफा कमाने की पूरी जैविक क्रिया विधि के बारे में जानकारी मिल गई होगी और आप भी भविष्य में कम लागत के साथ की जाने वाली जैविक खेती की तरफ रुझान करते हुए अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।

हैदराबाद में सब्जियों के अवशेष से बन रहा जैविक खाद, बिजली और ईंधन, पीएम मोदी ने की प्रशंसा

हैदराबाद में सब्जियों के अवशेष से बन रहा जैविक खाद, बिजली और ईंधन, पीएम मोदी ने की प्रशंसा

हैदराबाद की बोवेनपल्ली सब्जी मंडी आजकल खूब सुर्खियां बटोर रही है। यहां मंडी व्यापारियों की कोशिशों पर बेकार अथवा बची हुई अशुद्ध सब्जियों के उपयोग से जैविक खाद, बिजली और जैव-ईंधन निर्मित किया जा रहा है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसकी प्रशंसा की है। आजकल ऑर्गेनिक वेस्ट मैनेजमेंट अच्छी खासी आमदनी का स्त्रोत बनता जा रहा है। इसके चलते पर्यावरण को संरक्षण देने में भी विशेष मदद प्राप्त हो रही है। साथ ही, आजकल लोग ऑर्गेनिक वेस्ट के जरिए खूब मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। यह किसान भाइयों के लिए एक उन्नति का जरिया बनता जा रहा है। आजकल हैदराबाद की बोवेनपल्ली मंडी के अंदर भी कुछ इसी प्रकार का ऑर्गेनिक वेस्ट मैनेजमेंट प्रोजेक्ट चल रहा है। यहां पर मंडी में बची हुई अथवा बेकार सब्जियों से हरित ऊर्जा बनाई जा रही है। बोवेनपल्ली मंडी में सब्जियों के अवशेष को उपयोग करके बिजली, जैविक खाद, जैविक ईंधन निर्माण कार्य चल रहा है। मंडी व्यापारियों के नवाचार एवं सफल कोशिशों से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रशंसा की है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सराहनीय कार्य की खूब प्रशंसा की है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में बोवेनपल्ली सब्जी मंडी के व्यापारियों के नवोन्मेषी विचारों की खूब प्रशंसा की है। पीएम मोदी ने बताया है, कि ज्यादातर सब्जी मंडियों में सब्जियां खराब हो जाती हैं, जिससे असुरक्षित खाद्यान हालात उत्पन्न हो जाएंगे। ऐसे में समस्या का निराकरण करने हेतु हैदराबाद की बोवेनपल्ली सब्जी मंडी व्यापारियों द्वारा इस अवशेष से हरित ऊर्जा निर्मित करने का निर्णय लिया गया है। यह भी पढ़ें: एशिया की सबसे बड़ी कृषि मंडी भारत में बनेगी, कई राज्यों के किसानों को मिलेगा फायदा मंडी में फल एवं सब्जियों के प्रत्येक औंस अवशेषों द्वारा 500 यूनिट बिजली एवं 30 किलो जैव ईंधन बनाया जा रहा है। यहां उत्पादित होने वाली विघुत आपूर्ति प्रशासनिक भवन, जल आपू्र्ति नेटवर्क, स्ट्रीट लाइट्स और 170 स्टाल्स को की जा रही है। साथ ही, ऑर्गेविक वेस्ट से निर्मित जैव ईंधन को बाजार में स्थित रेस्त्रा, ढ़ाबे अथवा व्यावसायिक रसोईयों में भेजा जा रहा है। यहां विघुत के जरिए मंडी की कैंटीन प्रकाशित की जा रही है। साथ ही, यहां का चूल्हा तक भी प्लांट के ईंधन के जरिए जल रहा है। जानकारी के लिए बतादें, कि बोवेनपल्ली मंडी में प्रतिदिन 650-700 यूनिट विघुत खपत होती है। उधर, प्रतिदिन 400 यूनिट बिजली पैदा करने के लिए 7-8 टन फल एवं सब्जियों के अवशेषों की जरूरत पड़ती है। यह मंडी के जरिए ही प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार मंडी का वातावरण साफ-स्वच्छ और स्वस्थ रहता है। आज बोवेनपल्ली मंडी में स्थापित बायोगैस संयंत्र हेतु हैदराबाद की दूसरी मंडियों द्वारा भी जैव कचरा एकत्रित किया जाता है।

महिलाओं के लिए भी रोजगार के नवीन अवसर उत्पन्न हुए हैं

हैदराबाद की बोवेनपल्ली सब्जी मंडी में स्थापित बायोगैस प्लांट से वर्तमान में बहुत सारे लोगों को रोजगार का अवसर मिला है। यहां पर सब्जी बेचने वाले एवं अन्य लोग भी जैव कचरे को एकत्रित कर प्लांट में पहुँचाते हैं। साथ ही, प्लांट में पहुँचाए गए जैव कचरे की कचरे को अलग करने, कटाई-छंटाई करने, मशीन चलाने व प्लांट प्रबंधन का काम महिलाएं देख रही हैं। मंडी अधिकारियों के अनुसार, बायोगैस प्लांट में प्रतिदिन 10 टन अवशेष एकत्रित किया जाता है। यदि अनुमान के अनुसार बात करें तो इस अवशेष से एक वर्ष में 6,290 किग्रा. कार्बन डाई ऑक्साइड निकलती है। जो कि पर्यावरण एवं लोगों के स्वास्थ्य हेतु बिल्कुल सही नहीं है। इस चुनौती एवं समस्या को मंडी व्यापारियों ने संज्ञान में लिया है। इसका बायोगैस प्लांट को स्थापित करके संयुक्त समाधान निकाल लिया गया है। यह भी पढ़ें: पंजाब के गगनदीप ने बायोगैस प्लांट लगाकर मिसाल पेश की है, बायोगैस (Biogas) से पूरा गॉंव जला रहा मुफ्त में चूल्हा तेलंगाना राज्य की राजधानी हैदराबाद की इस बोवेनपल्ली मंडी में बायोगैस प्लांट को चालू करने का श्रेय जैव प्रौद्योगिकी विभाग एवं कृषि विपणन तेलंगाना विभाग, गीतानाथ को जाता है। यहीं बायोगैस प्लांट वित्त पोषित है। इस बायोगैस प्लांट को व्यवस्थित रूप से चलाने में सीएसआईआर-आईआईसीटी के वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन शम्मिलित है। यहीं की पेटेंट तकनीक के माध्यम से बायोगैस संयंत्र की स्थापना की गई है।
गाय के गोबर से बेहतरीन आय करने वाले 'जैविक मैन' नाम से मशहूर किसान की कहानी

गाय के गोबर से बेहतरीन आय करने वाले 'जैविक मैन' नाम से मशहूर किसान की कहानी

आज हम आपको जैविक खेती करने वाले एक किसान मुनिलाल महतो का कहना है, कि फिलहाल रासायनिक खाद 40 रुपये किलो तक की कीमत पर बिक रहा है। जैविक उर्वरक का भाव मात्र 6 रुपये प्रतिकिलो ही हैं। कीटनाशकों एवं रासायनिक खादों के इस्तेमाल से मृदा की उर्वरक शक्ति बेहद कमजोर पड़ती जा रही है। इससे खेत बंजर पड़ते जा रहे हैं। ऐसे में एक बार पुनः जैविक उर्वरकों की मांग में वृद्धि हुई है। लोग जैविक खाद के लिए काफी मोटी धनराशि खर्च कर रहे हैं। परंतु, इसके उपरांत भी किसानों को वक्त पर ऑर्गेनिक खाद प्राप्त नहीं हो पा रहा है। अब ऐसी स्थिति में बेगूसराय के मुनिलाल महतो जैविक विधि से खेती करने वाले कृषकों के लिए रोबिनहुड से कम नहीं हैं। वह किसानों को समुचित कीमत पर जैविक विधि से खेती करने वाले कृषकों को ऑर्गेनिक खाद मुहैय्या करा रहे हैं। विशेष बात यह है, कि जैविक खाद हेतु एडवांस में उनके पास आदेश पहुंच जाते हैं।

मुनिलाल महतो अपने इलाके में जैविक मैन के नाम से मशहूर हैं

हिंदी खबरों के मुताबिक, मुनिलाल महतो संपूर्ण इलाके में ‘जैविक मैन’ के नाम से मशहूर हैं। ध्यान देने वाली बात यह है, कि मुनिलाल किसानों को जैविक विधि से खेती करने का प्रशिक्षण भी देते हैं। अब तक वह क्षेत्र के सैकड़ों किसान भाइयों को प्रशिक्षण दे चुके हैं। ऐसे मुनिलाल महतो स्वयं भी जैविक विधि से खेती करते हैं। बतादें, कि साल 2013 से वह पूर्णतया ऑर्गेनिक खेती कर रहे हैं। इससे उनकी आमदनी बढ़ चुकी है।

ये भी पढ़ें:
ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए इस राज्य में मिल रहा 6500 रुपए प्रति एकड़ का अनुदान

जैविक विधि से उत्पादों का बेहतरीन भाव मिल जाता है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि जनपद के चेरिया बरियारपुर प्रखंड के गोपालपुर पंचायत के किसान प्रमोद महतो का कहना है, कि मैंने भी उनसे ही प्रेरणा लेकर जैविक खेती करना चालू किया है। इससे मेरी भी आमदनी में इजाफा हुआ था। प्रमोद महतो ने बताया है, कि आज वे वर्मी कंपोस्ट तैयार करने के साथ- साथ फ्लाईश खाद का भी उत्पादन कर रहे हैं। प्रमोद महतो के मुताबिक बाजार में जैविक विधि से पैदा किए गए उत्पाद का काफी अच्छा भाव मिल जाता है। इससे किसान वर्तमान में धीरे- धीरे जैविक खेती की ओर अपना रुख कर रहे हैं।

रासायनिक खाद कितने रुपए प्रति किलो बिक रही है

मुनिलाल महतो के अनुसार, बाजार में फिलहाल रासायनिक खाद 40 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिक रही है। लेकिन, जैविक उर्वरक का भाव केवल 6 रुपये प्रति किलो ही है। उन्होंने बताया है, कि रासायनिक खाद के इस्तेमाल से फसलों को 6 बार सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही, जैविक विधि से उत्पादित की गई फसलों को मात्र 3 बार ही सिंचाई की आवश्यकता पड़ता है।

जैविक खाद से वर्षभर में कितनी आमदनी की जा सकती है

फिलहाल, मुनिलाल के पास दो गायें हैं। इनके गोबर से वह जैविक खाद बनाते हैं। अपनी 2 एकड़ की जमीन पर वह जैविक खाद का ही इस्तेमाल करते हैं। साथ ही, शेष बचे हुए जैविक खाद की वह बिक्री कर देते हैं, जिससे उनको वर्ष में 60 हजार रुपये की आमदनी होती है। मुख्य बात यह है, कि मुनिलाल कीटनाशक के तौर पर गोमूत्र का इस्तेमाल करते हैं। इससे फसलों को भी किसी प्रकार की हानि नहीं होती है।